जल का कल


बाल अवस्था से ही "पर्यावरण" मेरे लिए एक ऐसा विषय रहा है जिसे समझने और लिखने में मैंने पूरी तरह से अपनी अंतरात्मा का प्रयोग किया है। मैं जब-जब शांति की तलाश में अपने मन की गहराइयों में उतरता हूँ तब-तब खुद को माँ प्रकृति के उतने ही करीब महसूस करता हूँ। अध्ययन के पैमाने पर अगर मैं विषयों को माप सकूँ तो इस श्रेणी में पर्यावरण व पारिस्थितिकी सम्बंधित विषयों की वरीयता हमेशा उच्च स्थान पर ही होगी।

"परि + आवरण", अर्थात पर्यावरण  जिसमें 'परि' का अर्थ है- चारों ओर तथा 'आवरण' का अर्थ है 'ढका हुआ', अर्थात किसी भी वस्तु या प्राणी को जो भी वस्तु चारों ओर से ढके हुए या 'घेरे हुए है', वह उसका पर्यावरण कहलाता है।

वैसे इस प्रकार का संधि विच्छेद तो आप पहले भी देख ही चुके होंगे, परंतु अब जरूरत इस तरह के संधि विच्छेदों को असल में समझने की, आपमें से लगभग अस्सी फीसदी लोग
इस समय किसी घर या चार दिवारी के अंदर यह आलेख पढ़ रहे होंगे, हाँ हम यह भी जानते हैं कि उस चार दिवारी के पार भी एक ऐसा प्राकृतिक आवरण है जो हमें घेरे हुए है, जिसमें
पेड़-पौधे , नदी , तालाब, झरने ,जंगल, जंगली जानवर, पशु-पक्षी, धरातल , पहाड़ , घाटी आदि सम्मिलित है।

ध्यातव्य हो कि जिस तरह का प्रदूषण हम हमारे बाहरी आवरण अर्थात (चार दिवारी के बाहर) फैला रहे हैं। वही अगर हमारे घर के भीतर होता , जैसे पानी की टंकी में प्लास्टिक ही प्लास्टिक भरा होता, घर के भीतर चारो तरफ धुआँ ही धुआँ फैला होता , बाहर की तरह ही सारा कूड़ा-करकट यहीं हमारे घर पर फैला होता, नदियों का गन्दा पानी हम सीधा पीने पर मजबूर हो जाते, धूल ही धूल हर जगह होती ,सच है यह भयावह स्थिति तो सोचते ही बनती है। अतः ज्ञात रहे, घर की चार दिवारी की तरह ही हमारा बाहरी आवरण भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

यह हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है, जोकि हमारे पूर्वजों की एक सुरक्षित देन है, और निश्चित ही हमें इसे आने वाली पीढ़ी को भी सुरक्षित ही सौपना भी है।

भारतीय सभ्यता और संस्कृति की बात करें तो यहाँ प्रकृति को " माँ " समान दर्जा दिया गया है। हमारे शास्त्रों में पेड़, पौधों, पुष्पों, पहाड़, पशु-पक्षियों, जंगली-जानवरों, नदियाँ, सरोवर, वन, मिट्टी, घाटियों यहाँ तक कि एक पत्थर भी पूज्य है और हमेशा उनके प्रति स्नेह तथा सम्मान की बात ही सिखाई जाती है और इसके द्वारा ही मानव तथा प्रकृति के बीच एक अटूट रिश्ता कायम किया गया है।

वेदों पुराणों में अलग-अलग प्रकार से प्रकृति की शक्ति और उसकी महिमा का बखान किया गया है। मत्स्य पुराण में अनेकानेक प्रकार के वृक्षों की महिमा एवं सामाजिक जीवन के महत्व में बारे में वर्णण करते हुए वृक्षों को लगाने से कौन-कौन से पुण्य-फल प्राप्त होते हैं, यह विस्तार से दिया गया है।
वृक्षों की महिमा का बखान करते हुए कहा गया है कि “ दस कुओं के बराबर एक बावड़ी, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र, और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है।

हड़प्पा कालीन सभ्यता से भी हमें प्रकृति स्वरुप माँ के गर्भ से वृक्ष के स्फुटित होने के प्रमाण सिक्कों के रूप में प्राप्त हुए हैं। हमारे सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में भी वृक्षों को अत्यधिक महत्व देते हुए लिखा गया है "भूर्जज्ञ उत्तान पदो" अर्थात हमारी पृथ्वी वृक्ष से उत्पन्न हुई है। यहाँ यह भी माना गया है कि बृह्मा ने जल में बीज बोया और उस प्रकार वनस्पति उपजी हैं।
ये मान्यताएं सृष्टि में वृक्षों के प्रथम आगमन की सिर्फ सूचनाएं ही नहीं देती, बल्कि इन्हें आदिशक्ति से भी जोड़ती हैं। सभी को संरक्षित रखने के उद्देश्य से इन्हें किसी  त्यौहारों, देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना से जोड़ा गया है।

औषधि के रूप में फलों तथा जड़ी-बूटियों की रक्षा करने की बात कही गयी है और इन्हें घरों के निकट लगाकर पर्यावरण को स्वच्छ रखने की सलाह दी गयी है। हमारे पूर्वजों ने इन आदि ग्रन्थों का संकलन नदी , ताल , सरोवर , वन , अर्थात प्राकृतिक स्थान पर ही किया है, परंतु मौजूदा समय में हम यदि किसी छोटे बच्चे से यह कहेंगे के किस प्रकार यहाँ हमारे पूर्वजों ने इतनी मेहनत से प्रकृति के बीच रहकर इन महान ग्रन्थों का संकलन किया है, तो शायद वे इस बात पर विश्वास न कर सकें।

क्योंकि आज विकास के अंधेपन में मनुष्यों ने वृक्षों की अंधाधुंध कटाई की है। मौजूदा समय में पेड़-पौधों की लगभग दस हज़ार  प्रजातियाँ तो हर साल विलुप्ति की बलि चढ़ रही है। अतः अब यहाँ जरूरत है कि पौराणिक मान्यताओं को आधुनिक तथ्यों तथा तर्कों के साथ प्रस्तुत किया जाए तथा उनकी उपयोगिता समझी जाए।

वृक्षों की बेतरतीब कटाई से आज हम बहुत से पर्यावरणीय संकट से जूझ रहे हैं। जिसमें से भूमंडलीय ऊष्मीकरण और अल्पवर्षा दो बहुत ही गंभीर समस्या हम सभी के सामने है।
यहाँ अपने नाम के अनुरूप न हो कर यह आलेख "पेड़- पौधों "पर भी अपना ध्यान केंद्रित किए हुए है, और आप यही सोच रहे होंगे की अब-तक यहाँ जल की तो एक बूंद तक नहीं दिखाई दी, या जल के विभीषिका की तो कोई बात ही नहीं की गई "पेड़-पौधों" का भला जल से क्या संबंध? पर इसका यही जवाब होगा की पेड़-पौधे वर्षा कराने के लिए बहुत हद तक उत्तरदायी होते हैं अर्थात ये कहीं न कहीं एक दूसरे से परस्पर सम्बंधित हैं।

उत्तरी मध्यप्रदेश के कइयों जिले आज भीषण जल समस्या का सामना कर रहे हैं इसका मुख्य कारण यह भी है कि कभी उत्तरी मध्यप्रदेश के 45 फीसदी हिस्से पर घने जंगल हुआ करते थे। जहाँ अब हरियाली सिमट कर मात्र 10 से 13 फीसदी रह गई है।

अब बुंदेलखंड जैसे क्षेत्रों में हर पांच साल में दो बार अल्प वर्षा होना कोई आज की विपदा नहीं है। ठेकेदारों ने मनमाने ढंग से बेतरतीब जंगलों की कटाई की है। परिणाम स्वरूप वहां इस प्रकार की आपदा का सामना करना पड़ रहा है।

 ऐसे में ये कुछ प्रश्न उठना तो जायज है कि आखिर कब-तक भारतीय वन यूँ ही ठेकेदारों के हाथ सर्वनाश का दंश झेलते रहेंगे? आखिर कब-तक वनपुत्रों अर्थात आदिवासियों को उनकी ही जमीन से सरकार और कुछ ठेकेदार खदेड़ते रहेंगे? आखिर कब-तक सरकारें केवल कागजों पर ही जल तथा वृक्षों को संरक्षित करते नजर आएगी?

अतः सरकार को अब यह मानना ही होगा कि यदि पानी को सहेजने व उपभोग की पुश्तैनी प्रणालियों को स्थानीय लोगों की भागीदारी से संचालित नहीं किया गया तो बुंदेलखंड जैसे क्षेत्रों का गला शायद शीतल नहीं होगा।

"पृथ्वी सभी मनुष्यों की जरूरत पूरी करने के लिए तो पर्याप्त संसाधन प्रदान करती है, किन्तु वह किसी भी मनुष्य की लालच को पूरा नहीं कर सकती"

महात्मा गांधीजी का यह वाक्य बहुत ही सटीकता से अपना अर्थ सिद्ध करता है, अर्थात हम अपने लालच से पृथ्वी को निरंतर विनाश की ओर ढकेल रहे हैं, वनों की अत्यधिक कटाई, भूजल का अत्यधिक दोहन, कार्बन का अत्यधिक उत्सर्जन , प्लास्टिक का अत्यधिक उपयोग, मोटर वाहनों का अत्यधिक प्रयोग यहाँ तक हमनें हमारी पूजनीय नदियों को भी अत्यधिक दूषित कर दिया है।

हर साल अनेकों बड़े सम्मेलनों में भांति-भांति प्रकार के  संकल्प लेकर हम प्रकृति और पर्यावरण के साथ एक भद्दा मजाक कर रहे हैं। विकास के अंधेपन ने विकसित और विकासशील देशों को दो अलग खेमों में ला खड़ा किया है। अतः यहाँ जरूरत है विश्व के समस्त देशों को एकजुट हो अपनी स्वार्थी प्रवृत्ति का त्याग कर पर्यावरण सम्बंधित
समस्याओं का समाधान निकालने की।

ग्लोबल वार्मिंग के बाद जल संकट दूसरी सबसे बड़ी गंभीर चुनौती है। विश्व जल दिवस पर जारी ब्रिटेन के अंतरराष्ट्रीय संगठन ‘वाटर एड’ की रिपोर्ट में  यह दावा किया है कि भारत में एक अरब की आबादी पानी की कमी वाले स्थानों में रह रही है।

पानी की कमी झेल रहे लोग पीने के पानी की तलाश में मीलों की लंबी दूरी तय कर जाते हैं और किसी भी तरह का जल पीने पर मजबूर हो रहे हैं, एक रिपोर्ट के अनुसार दूषित जल-जनित रोगों से विश्व में हर वर्ष लगभग बाईस लाख लोगों की मौत हो जाती है। भारत में भी वही तमाम समस्याएँ हैं जिनमें पानी की बचत कम, बर्बादी ज़्यादा है। यह भी सच्चाई है कि बढ़ती आबादी का दबाव, प्रकृति से छेड़छाड़ और कुप्रबंधन भी जल संकट का एक महत्त्वपूर्ण कारण है।

वैश्विक भूजल की कमी सन 2000 से 2010 के बीच बढ़ कर करीब 22 फीसद हो गई है लेकिन इस अवधि में भारत में भूजल की कमी लगभग 23 फीसद हो गई है। हमारे देश के कृषि क्षेत्र में समस्त उपलब्ध जल का लगभग 70 फीसद उपयोग होता है लेकिन इसका केवल दस फीसद सही तरीके से इस्तेमाल हो पाता है और शेष साठ फीसद जल बर्बाद हो जाता है। प्रति व्यक्ति सालाना जल की उपलब्धता के मामले में भारत चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों से भी पीछे है।

तेज़ी से बढ़ता शहरीकरण तथा औद्योगीकरण के कारण जल की मांग में बहुत वृद्धि हुई है। शहरों तथा गाँवों एवं कृषि तथा उद्योगों के मध्य विवाद होना तो आज आम बात हो चुकी है। जल पर विवाद सिर्फ शहर या गांव तक ही सीमित नहीं है यह राज्यों और कई देशों के बीच विवाद का सबब रहा है। चाहे वो कावेरी जल विवाद हो या सिंधु।

प्रकृति से निरंतर छेड़छाड़ के फलस्वरूप मानव अपने ही विनाश को बुलावा भेजता रहता है। प्रकृति का संतुलन बिगड़ने से कभी तो हम भीषण बाढ़ का सामना करते हैं, और कभी भीषण सूखे का। आज दुनिया की चौथी सबसे बड़ी झील, अरल सागर अपना दम लगभग तोड़ ही चुकी है, मध्यएशिया के कजाखस्तान और उत्तरी उजबेकिस्तान में इस प्राकृतिक आपदा को बखूबी देखा जा सकता है। बीते 50 सालों में अरल सागर का लगभग 90 फीसदी हिस्सा सूख चुका है। वाकई ये दुनिया के सबसे बड़ी पर्यावरण आपदाओं में से एक है।

कभी हजार झीलों की प्रसिद्धि प्राप्त बेंगलुरु शहर में अब मुश्किल से बीस फीसदी झीलें ही शेष बची है। आधी से ज्यादा झीलों में सीवरेज का पानी सीधा जोड़ दिए जाने से और घरों में बोरवेल या पाइप लाइन द्वारा पानी आने से झीलों की महत्वता खतरे में पड़ गई है अतः इससे वहां की पारिस्थितिकी बुरी तरह प्रभावित हुई है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली और बेंगलुरु जैसे बड़े शहरों के मुख्य जलस्त्रोत 2030 तक़रीबन तक खत्म हो जायेंगे।

यहाँ मैं अपने राज्य मध्यप्रदेश की बात करूँ तो 2019 में अप्रैल माह से ही प्रदेश के 93 शहरों तथा कस्बों में पानी एक दिन छोड़ कर दिया जाता है। यहाँ करीब 2 हज़ार नलजल योजनाएं बंद हो चुकी है और करीब 26 हज़ार हैंडपंप पूरी तरह सूख चुके हैं।

मेरे अपने शहर इंदौर के ही पश्चिमी भाग की बोरवेल तो मार्च महीन के शुरुआत से ही एक गिलास पानी तक उपलब्ध  करा पाने में असमर्थ नजर आती हैं। यहाँ के मुख्य तालाबों का जलस्तर बहुत कम हो गया है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो 2030 तक कुल जल की मांग के आधे की पूर्ति भी नहीं हो पाएगी। इसके अलावा फ्रलोराइड, आर्सेनिक, मरकरी तथा यूरेनियम द्वारा प्रदूषण भी जल सम्बंधित एक बड़ी समस्या है।
वैसे तो दूसरे अन्य देशों की तुलना में भारत में पानी के अकूत भंडार मौजूद हैं, परंतु लापरवाही और ख़राब जल प्रबंधन के चलते भारत एक बड़े जल संकट का सामना कर रहा है। 

उदाहरणतः इज़राइल के मुकाबले भारत में जल की उपलब्धता पर्याप्त है परंतु इज़राइल में खेती, उद्योग, सिंचाई आदि कार्यों में रिसाइकिल्ड जल का उपयोग अधिक होता है और यही कारण है कि इज़राइल के लोगों को पानी संबंधी दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ता है। इस सन्दर्भ में हम इज़राइल से काफी कुछ सीख सकते हैं।

हमें पुराने जलकूप, नदी, जल सरोवर , झीलें , बावड़ियां , कुण्ड अर्थात जल संरक्षण की समस्त प्राचीन तथा अर्वाचीन तकनीकों का प्रयोग करते हुए एक बेहतर जल संरक्षण विधि के द्वारा जितना हो सके जल संरक्षित करना चाहिए।

"जल प्रबंधन और संरक्षण" के लिए हुकूमत तो विभिन्न योजनाओं के तहत अपना काम कर ही रही है, परंतु यह केवल चंद महकमों के चाहने भर से संभव नहीं हो सकता अतः इसके लिए सामाजिक चेतना का जागरूक होना नितांत आवश्यक है।

जल प्रबन्धन को बेहतर बनाने में राष्ट्रीय जल नीतियों की अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। पिछले 70 सालों में तीन राष्ट्रीय जल नीतियाँ बनाई गईं। पहली नीति 1987 में बनी, जबकि 2002 में दूसरी और 2012 में तीसरी जल नीति बनी। चूंकि जल राज्य का विषय है, तो भारत के 14 राज्‍यों ने अपनी-अपनी जलनीतियाँ बना ली हैं। 

जल नीति में खाद्य सुरक्षा, जैविक तथा समान और स्थायी विकास के लिये राज्य सरकारों को सार्वजनिक धरोहर के सिद्धांत पर बल दिया है।

यह ध्यातव्य हो की जल का पान सिर्फ मुझे ही नहीं करना है, या केवल सरकारी महकमों को नहीं, अर्थात यह जरूरत और जिम्मेदारी हर जन प्रत्येक की है कि वो जल प्रबंधन की दिशा में उचित कदम उठाएं और जल को किसी भी तरह व्यर्थ होने से बचाएं और इसके लिए बड़ी-बड़ी बातें करने मात्र से शायद कुछ नहीं होने वाला जब-तक की उसके लिए वास्तव में कुछ किया नहीं जाएगा।

राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण बोर्ड ने जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय के अधीन केंद्रीय भूमिगत जल प्राधिकरण (CGWA) ने 12 दिसंबर, 2018 को भूमिगत जल निकालने के संदर्भ में संशोधित दिशा-निर्देश अधिसूचित किये जोकि 01 जून, 2019 से प्रभावी हो जायेंगे।
जल संरक्षण की अनेकों तकनीक हैं जिसमें से जलभारण अत्यधिक महत्वपूर्ण तकनीक साबित हो सकती है।
जलभारण या वाटरशेड भूमि पर एक जल निकास क्षेत्र है, जो वर्षा के बाद बहने वाले जल को किसी नदी, झील, बड़ी धारा अथवा समुद्र में मिलाता है। यह किसी भी आकार का हो सकता है। इस उपाय के अंतर्गत कृषि भूमि के लिए ही नहीं, अपितु भूमि जल-संरक्षण, अनुपजाऊ एवं बेकार भूमि का विकास, वनरोपण और वर्षाकाल के जल का संचयन कार्य किया जा सकता है।

अंततः जल संरक्षण और उचित प्रबंधन के साथ-साथ हमें वृक्षारोपण पर भी अत्यधिक ध्यान देने की जरूरत है। इंसान अगर वृक्षों की भाषा डिकोड कर पाते तो यह जान पाते की वे भी किसी तरह के आंदोलन पर जाना चाहते हो, अपनी शर्तों में मनुष्यों को ऑक्सीजन देने से इंकार कर दें। अपने मीठे फल तथा महत्वपूर्ण औषधियां देने से इंकार कर दें। इतनी भयानक गर्मी में अपनी शीतल छाया देने से इंकार कर दें।
वर्षा होने पर मिट्टी का कटाव न रोकें। वातावरण को शुद्ध करने से इंकार कर दें। तभी शायद वे स्वार्थी मनुष्य को अपनी गलतियों की समीक्षा कराने पर मजबूर कर सकेंगे। यह एक ऐसी असहनीय पीड़ा है जो उनकी ओर से मुझे सुनाई दी है, आशा करता हूँ की आप सभी को यह पीड़ा सुनाई दे। 

अतः यहाँ जनसामान्य की केवल भावनाएं ही काम नहीं कर सकेंगी यहाँ काम करने के लिए उनकी एक प्रबल इच्छा शक्ति का होना भी बहुत ही जरुरी है तथा "वृक्षों की कटाई और जल संरक्षण एवं प्रबंधन" पर बने कानूनों को और भी कठोर बनाने की सख्त जरूरत है।

कट गए वृक्ष,
बह गया जल,
आज कानून केवल कागज़ पर ही अमल हैं।
बचा सको तो बचा लो साहेब, कुछ ऐसा भीषण 'जल का कल' है।

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