रेल राज


भारत में सबसे शानदार और यादगार रेल यात्रा को ही माना जाता है। शहरों, कस्बों और तटीय क्षेत्रों तथा प्रादेशिक क्षेत्रों में आराम से और बेहतर आनंद लेके यात्रा केवल ट्रेन के द्वारा ही की जा सकती है। विभिन्न वर्गों के लिए यह यात्रा का बहुत ही सुचारु साधन है, जो उनकी अनिश्चित यात्रा से लेकर निश्चित यात्रा को सफल और यादगार बनाता है।

भारतीय रेल का ये सफर 16 अप्रैल, 1853 से शुरू हुआ, जब पहली बार भारत में पैसेंजर ट्रेन महाराष्ट्र प्रांत के मुंबई से थाणे के बीच लगभग 34 किलोमीटर चलाई गई थी। यह सफर तय करने में लगभग 45 मिनट का वक्त लगा था।

जिसमें 14 डिब्बे और 400 सवारियां बैठी थी। यह ब्रिटिश गवर्नर जनरल लार्ड डलहौसी के कार्यकाल में चलाई गई थी। इसलिए इस दिन को भारतीय रेल परिवहन दिवस के रूप में मनाया जाता है।

परन्तु रेल का ये सफर कभी तो यादगार होता है और कभी 'इतना यादगार' होता है कि चाह कर भी आजीवन भुलाया ही न जा सके।

ऐसा ही एक वाकया मेरे साथ भी हुआ था जब 2016 में नोट बंदी का एक बड़ा फैसला प्रधानमंत्री जी द्वारा लिया गया तो उस समय लोगों को यहाँ बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा था, वरिष्ठों को प्राथमिकता, दिव्यांगों तथा महिलाओं की सुरक्षा व्यवस्था तथा रुपयों की कमी से ए.टी.एम की लंबी-लंबी कतार तथा बैंकों को भी अत्यधिक भार का सामना करना पड़ा था, शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र रहा हो जहाँ नोट बंदी का असर ना दिखा हो।

19 नवम्बर 2016 को मेरे पिताजी गाँव(कोहरा) में खेती के कुछ काम से तत्काल ही गाँव जाने की योजना बना चुके थे। ट्रैन की लंबी यात्रा से गाँव पहुंचने में लगभग सोलह से अठारह घण्टे लग ही जाते हैं। मेरा गाँव कानपुर शहर के पास स्थित है, सो इंदौर से गाँव जाने के लिए एक सीधी ट्रैन पटना-एक्सप्रेस हमें यहाँ इंदौर से मिल जाती है।

पिताजी को गाँव जाने के लिए कुछ रुपयों की जरुरत थी सो बैंक से रुपये निकालने की जिम्मेदारी पिताजी ने मुझ पर ही सौंपी थी सो मैं भी बैंक की कतार में जा खड़ा हुआ। परंतु बैंक में अत्यधिक भीड़ के कारण मैं समय से पिताजी के लिए रुपयों का बंदोबस्त नहीं कर सका, जिससे पिताजी ने गाँव जाने का अपना निर्णय एक दिन और आगे बढ़ा लिया था।

20 नवम्बर 2016, अगले दिन सुबह घर में अफरा-तफरी और चिंता का माहौल नजर आया, जब मैंने वजह जानने की कोशिश की तो पता चला जिस ट्रैन से पिताजी गाँव के लिए निकलने वाले थे, वह ट्रैन दुर्घटनाग्रस्त हो गई है। यह सुनकर मैं सुन्न रह गया, ना तो मुख से कुछ बोला गया और ना ही कुछ कहने की शक्ति शायद रही हो। मेरे परिवार के लोगों को शायद यही पता रहा होगा कि पिताजी कल की ट्रेन से ही निकले हैं इस वजह से फ़ोन दर फ़ोन आते गए।

जब टीवी पर समाचार देखा तो सभी समाचार चैनल उस ट्रैन हादसे के गवाह बने अपने वहां पहुंचने का अपना दावा कर रहे थे। यह एक भयंकर ट्रैन हादसा था जो कानपुर से पहले पुखरायां के निकट हुआ था, इस हादसे में इंदौर-पटना ट्रैन की लगभग 14 बोगियां पटरी से उतर गई थी, इसमें लगभग 150 से ज्यादा लोगों की मौत की पुष्टि हुई, और करीब 300 लोग घायल हुए थे इस ट्रेन हादसे ने ना सिर्फ मेरे परिवार को अपितु पूरे देश को सदमें में डाल दिया था। यह भारत में दूसरा सबसे बड़ा ट्रैन हादसा था। पीड़ितों में आज भी ऐसे कई लोग हैं जो उस हादसे के निशान अपने शरीर या ह्रदय में लिए अपना जीवन जी रहे हैं। उस हादसे में कोई अपने सपने खो बैठा तो कोई अपनों को खो बैठा, किसी घर का चिराग बुझ गया तो किसी के चिता की रोशनी ने किसी सर से छत का साया ही छीन लिया।

परंतु क्या अब भी किसी को उन खरोचों-दिव्यांगों और दिव्यजनों के प्रति कोई परवाह नजर आती है? यह विडंबना ही है हमारी की हम ऐसी कार्यात्मक प्रणाली और व्यवस्था को आँख मीचे केवल सहन कर रह जाते हैं, और फिर कोई हादसा होने पर कुछ समय के लिए क्रोधित हो जाते हैं, पर इससे हमें कुछ ख़ास मिलता नही है, मिलती है तो वो है सांत्वना, ट्विटर पर संवेदनाओं के ट्वीट, गहरा शोक, आरोप-प्रत्यारोप, जांच के आदेश, मरने वाले और घायलों को चंद रुपया और कुछ नेताओं को इस पर भी सियासत करने का मौका।

साँप निकल जाने के बाद लाठी पीटने की यह कहावत पूरी तरह से हमारी प्रणाली को इंगित करती है। वो कोई हादसा जो हमारे परिवार के साथ नही जुड़ा होता उस पर थोड़े दिन का दिखावटी शोक प्रकट कर हम फिर अपने दैनिक कार्यो में  व्यस्त हो जाते हैं, यह हमारी सबसे बड़ी लापरवाहियों में से एक है।
यहाँ यह जानना आवश्यक है कि भारतीय रेलवे हर रोज तकरीबन 1.5 से 2.5 करोड़ यात्रियों को अपनी मंजिल तक पहुंचाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी रेल प्रणालियों में से एक है। भारतीय रेलवे में करीब 1,21,407 किमी का ट्रैक और 67,368 कि.मी. का मार्ग है जिस पर 8000 से ज्यादा स्टेशन बने हुए हैं। इसमें लाखों कर्मचारी काम करते हैं। पूरे देश में इसकी पटरियों की कुल लंबाई लगभग 1.21 लाख किलोमीटर है जिसपर हर रोज करीब 13 हजार पैसेंजर ट्रेनें दौड़ती हैं।
लेकिन इतनी बड़ी व्यवस्था के साथ सुरक्षा के मानकों पर यह दूसरे बड़े देशों की तुलना में फिस्सडी ही नजर आती है। अकेले मोदी सरकार के कार्यकाल में ही आधा दर्जन से ज्यादा रेल दुर्घटनाओं में सैकड़ों लोग असमय काल के गाल में समा गए।

रेल दुर्घटना के चलते ही सुरेश प्रभु की कुर्सी गई और उनकी जगह पीयूष गोयल को लाया गया, लेकिन सिस्टम और रेलवे की लापरवाही से दुर्घटनाओं पर लगाम नहीं लग सकी।
आंकड़ों की माने तो वर्ष 2016-17 में करीब-करीब 78 घटनाएं ट्रैन के पटरी से पलटने के कारण हुई थी। इन घटनाओं में करीब 193 लोगों की मौत हुई है, जो पिछले 10 वर्षों में सबसे ज्यादा है।

हादसों का एक बड़ा कारण मानवरहित रेलवे फाटक भी हैं, जहां जल्दबाजी दिखाने पर जाने कितने ही लोग असमय ब्रह्मलीन हुए हैं। हालांकि इस पर भारतीय रेलवे के ‘विजन 2020’ में यह प्रण लिया गया है कि भारत में मानवरहित फाटक पूरी तरह खत्म करने होंगे। जिससे इस तरह के हादसों पर काबू पाया जा सके, परंतु क्या विभाग अपने प्रण को समय से पूरा कर सकेगा इस पर भी अभी प्रश्नचिन्ह अंकित है।
करीब 80 फीसद दुर्घटनाएं मानवीय चूक के कारण होती हैं। अभी हाल ही में हुए अमृतसर रेल हादसा जिसमें ट्रैन करीब 60 लोगों को चीरते हुए निकल गई थी। उस हादसे को भी मानवीय भूल कह लंबी प्रक्रिया में टाल दिया गया है, और उसकी जांच प्रक्रिया अब भी अधर में है। इस पर जांच आयोग कई महीनों बाद जब अपनी रिपोर्ट सौंपेगा। तब तक जनता इस हादसे को भी भूल चुकी होगी, जब तक कि कोई नया हादसा न हो जाए।
भारत में मौजूदा हाल में लगभग 67,368 किलोमीटर लाइनें हैं, हम उन्हीं की सुरक्षा पर पूरा खर्चा नहीं कर पा रहे हैं। केंद्र सरकार के ही आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2013 से 2017 के दौरान साढ़े चार सौ से ज्यादा हादसे हुए। हाल के हादसों से साफ है कि पटरियों पर ट्रेनों के बढ़ते दबाव के चलते उनकी सही मरम्मत व रखरखाव का काम संभव नहीं हो पा रहा है।

कुछ वर्ष पहले रेल मंत्रालय की ओर से जारी एक श्वेतपत्र में कहा गया था कि देश भर में फैली 1 लाख 14 हजार 907 किमी लंबी पटरियों के नेटवर्क में से हर साल साढ़े चार हजार किलोमीटर लंबी पटरियों को बदला जाना चाहिए। पर रेलवे में रुपयों की तंगी कोई नई बात नहीं रही है। देश की रेल व्यवस्था की खास बात यह है कि पहले से पता खामियों को दूर किए बिना ही हर साल रेल नेटवर्क के विस्तार पर जोर होता है, ऐसे में हम किस तरह नई बुलेट ट्रेन के भार को वहन कर सकेंगे जब पहले से ही हमारी प्रणाली की कमर में दर्द हो।

यूँ राजनीतिक कारणों से नए स्टेशन बनाए जाते हैं। नई पटरियां घोषित की जाती हैं, नए कोच कारखाने लगाए जाते हैं, पुराने स्टेशनों का दर्जा भी बढ़ाया जाता है पर सुरक्षा मानकों में इसका कोई नया असर क्यों दिखाई पड़ता इस पर भी प्रश्नचिन्ह अंकित है।

ऐसे में जब भी कोई आम इंसान 2022 तक भारत में बुलेट ट्रेन के सपने देखता है, तो उसके जहन में यह सवाल उठना जायज है, की हमारी प्राथमिकता आखिर है क्या??? यूँ तो हम गतिमान की गति पर भी अपना सिर उठा कर चल सकते हैं, परंतु इन हादसों की दुर्गति ने बहुतों के सिर मुंडवा दिए हैं। अतः आशय स्पष्ट है कि हम सुरक्षित सफर चाहते हैं फिर चाहे गति को बढ़ाने में कुछ और समय क्यों न दे दिया जाए।

(बीबीसी के अनुसार) इसका एक पक्ष यह भी है कि बुलेट ट्रेन के इस प्रोजेक्ट में कुल लागत एक लाख करोड़ की आएगी। जिसमें आधिकारिक रूप से इसकी लागत 97,636 करोड़ बताई गई है लेकिन रिपोर्ट्स के मुताबिक 10 हज़ार करोड़ अतिरिक्त खर्च हो सकता है।

यहाँ यह भी जानना नितांत आवश्यक कि इसमें लागत की जो रकम है वह भारत के स्वास्थ्य बज़ट की तिगुनी है। जिसमें भारत वह देश है जहां के लगभग 35 से 40  फ़ीसदी बच्चे कुपोषित हैं और दो साल की उम्र में ही उनका शारीरिक विकास रुक जाता है। 

इसका मतलब यह हुआ कि ये बच्चे स्वस्थ बच्चों के मुकाबले शारीरिक और बौद्धिक रूप से कमजोर होंगे और इनका जीवन कभी संपूर्ण नहीं होगा।
यही नही बुलेट ट्रेन की जो लागत है वह भारत में हर साल शिक्षा पर खर्च होने वाले बजट की रकम से ज़्यादा है। दुनिया में भारत का उन देशों में शुमार है जहां की साक्षरता दर सबसे निचले पायदान पर है। इसके साथ ही हमारे यहां शिक्षा की गुणवत्ता भी बेहद ख़राब है। ऐसे में यह सवाल उठना भी जायज है कि क्या हम हमारी शिक्षा गुणवत्ता और बच्चों के स्वास्थ्य के साथ इसका और भी बेहतर उपयोग कर सकते थे ??
बुलेट ट्रेन की पटरी को बिछाने का खर्चा भी बहुत महंगा पड़ता है। पांच सौ किलोमीटर पटरी बिछाने का खर्चा तक़रीबन एक लाख करोड़ का पड़ता है।
यहाँ गौरतलब है कि एक लाख आठ हजार करोड़ रुपये के इस बुलेट ट्रेन प्रॉजेक्ट के लिए 88 हजार करोड़ रुपये का लोन देने पर सहमति हो चुकी थी। अब बुलेट ट्रेन के लिए इस 88 हजार करोड़ रुपये में से रेलवे जरूरत के मुताबिक, लोन की रकम लेता रहेगा।
इसी क्रम में पहली किस्त के रूप में (जाइका) 89,457 बिलियन येन यानी लगभग 5591 करोड़ रुपये दे रहा है जिससे भारत में बुलेट ट्रेन के सपनों को साकार रूप दिया जा रहा है।
2018 में रेलवे की सबसे बड़ी उपलब्धि इस साल रेल हादसों में कमी रही है। 2018 में दिसंबर माह तक कुल 45 रेल हादसे हुए हैं और वहीं 2017 में इस समयावधि तक लगभग 54 रेल हादसे हुए थे। हादसों की इन कमी से रेल मंत्रालय को थोडी राहत जरूर मिली होगी लेकिन असल में यह राहत बड़ी मामूली है और इससे कोई प्रशस्ति हासिल करने की उम्मीद करना भी बड़ी भूल है।
हालांकि वर्तमान में यह कहना भी उचित नहीं होगा की भारतीय यात्री आज भी ट्रेनों में लगे पंखों को ऊँगली डाल कर घुमाया करते हैं, जैसा की पहले हुआ करता था अर्थात भारतीय रेलवे ने भी विकास की यात्रा पर अपने पहियों की गति को बढ़ाया है।

इस साल हाईस्पीड ट्रेन टी-18 का रायबरेली की इंटिग्रल कोच फैक्ट्री में निर्माण किया जाना भी बड़ी उपलब्धि है। यह ट्रेन राजधानी जैसी ट्रेनों का स्थान लेगी जिसकी अधिकतम गति 180 किलोमीटर प्रतिघंटे की है। इस ट्रेन को बनाने में करीब 97 करोड़ रुपए खर्च हुए।

रेलवे एक और परियोजना के तहत सेमी हाईस्पीड और हाईस्पीड ट्रेनों के परीक्षण के लिये जयपुर और फुलेरा के बीच 40 किलोमीटर के अंडाकार रेलवे ट्रैक बनाने पर भी काम कर रहा है। इस परियोजना के पूरा होते ही भारत ऐसे ट्रैक बनाने वाला पांचवा देश बन जाएगा। इसके अलावा यह साल स्वच्छ ऊर्जा प्रदान करने के लिये 12 हजार हॉर्स पावर के इलेक्ट्रिक लोकोमोटिव इंजन को रेलवे के बेड़े में शामिल होने के लिये भी याद किया जाएगा।

इसी क्रम में देश का सबसे लंबा बोगीबील पुल शुरू हो गया है। यह पुल असम तथा अरुणाचल प्रदेश को जोड़ने वाले रेल-सड़क पुल है। एशिया का दूसरा सबसे लंबा बोगीबील पुल 16 साल में बनकर तैयार हुआ है। अभी हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क्रिसमस के दिन इसका उद्घाटन किया।

यही नहीं मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग पर हादसे रोकने के लिए इसरो (इंडियन रिसर्च स्पेस आॅर्गेनाइजेशन) भी जुट गया है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, इसरो रेलवे के इंजनों में गगन (जीपीएस) नामक चिप लगाएगा, जो सेटेलाइट सिस्टम से जुड़े होंगे। रेल लाइन की ध्वनि से ही चिप को आगे मानवरहित क्रॉसिंग का आभास हो जाएगा और हॉर्न बजने लगेगा। लगातार हॉर्न बजने पर लोग खुद ही अलर्ट होकर लाइन से हट जाएंगे।

यही नहीं सुरक्षा के मद्दे नजर रेलवे प्रणालियों में मौजूद सुरक्षा सुविधाओं को मोटे तौर पर दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।

एक तो लोकोमोटिव और ट्रेन में मौजूद सुरक्षा सुविधाएं तथा दूसरी है रेलवे इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे पटरियां, स्टेशन और सिग्नल में मौजूद सुरक्षा विशेषताएं। अतः ये भी इस दिशा में बेहतर कार्य कर रही हैं। सिग्नल प्रणाली को भी अत्यधुनिक बनाया जा रहा है , तथा ट्रेन टकराव बचाव प्रणाली (टीसीएएस) उपयोग में लाई जा रही है जिससे संकट के समय अधिसूचना प्राप्त की जा सके और ट्रेन दुर्घटना से बचा जा सके।

इसी के साथ ही रेलवे ने हाल ही में सुरक्षा व्यवस्था को और भी कड़ा करते हुए एयरपोर्ट के तर्ज पर यात्रियों को ट्रेन के समय से 20 मिनट जल्दी पहुंचने पर जोर दिया है। जिसमें अत्याधुनिक तकनिकी से जांच प्रक्रिया बाद ही यात्रियों को सफर करने की अनुमति दी जा सकेगी। हालांकि यह प्रक्रिया अभी कुछ ही स्टेशन पर चलाई जाएगी।

अतः यहाँ यात्रियों से भी यह आशा की जाती है की वे रेलवे की संपत्ति और उनके मानदंडों का पालन तथा रक्षा करें, नाकि उनका दुरुपयोग और उन्हें क्षति पहुचाएं। क्योंकि कई बार उनके अनुचित व्यवहार से भी रेल व्यवस्था को धक्का लगा है।

उदाहरण के लिए नई तेजस ट्रैन के यात्रियों ने जिस तरह उसे क्षति पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी इससे यह साफ़ होता है कि हम अब भी उस काबिल नहीं हुए हैं जो अपनी ही संपत्ति की रक्षा कर सकें। अतः हम इस तरह की सुविधा के लायक कब होंगे इस पर अब भी प्रश्नचिन्ह अंकित है।

अंत में मैं यही कहना चाहूंगा कि भारतीय रेल को दुर्घटना से बचाने के लिए सरकार को इस दिशा में आवश्यक तथा महत्वपूर्ण कदम उठाने होंगे, हमें ना सिर्फ नई अत्याधुनिक तकनीक को बढ़ाना होगा अपितु आवश्यकता अनुसार उनके संरक्षण का पूरा ध्यान भी रखना होगा।

सरकार को अपना ध्यान, ना सिर्फ रेल के पहियों की गति और रेल विस्तार पर देना चाहिए, अपितु इसकी सुरक्षा पर भी पूरा "जोर" होना चाहिए। इस प्रकार जब सही संतुलन से प्रणाली की रेल अपनी पटरियों पर दौड़ेगी तभी कायम रह सकेगा, 'रेल राज'।

"भले ना मिले मुझे बुलेट ट्रेन,
ना चाहिए कोई सीट आरक्षित।
एक सफर सुहाना चाहता है सौरभ।
इस जीवन की रेल में बिलकुल सुरक्षित।"

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